मन की स्थिरता से बने संकल्पवान
हमारा मन चंचल होता है, जिसमें विचारों का प्रवाह हर घड़ी चलता रहता है। कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक विचार आते है। सकारात्मक विचारों से सुख की वहीं नकारात्मक विचारों से दुःख की अनुभूति होती है। सोते-सोते सपनों में भी विचारों का सागर उमड़ने लगता है। मन में चल रहा ये विचारों का प्रवाह एक क्षण में हजारों मील की यात्रा कर सकता है। ये सब अस्थिर मन की पहचान है।हम चाहे तो मन को एकाग्र व स्थिर कर सकते है। उसकी चंचलता को दूर कर सकते है। ऐसा करने के लिए अभ्यास व वैराग्य की जरूरत होती है। यदि मन को वस में कर लिया जाए तो वैचारिक ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होगा। जिससे इच्छा शक्ति भी मजबूत होगी और व्यक्ति संकल्पवान बन जाएगा।
मन रहे मस्त तो बीमारी पस्त
यदि मनोरोग है तो शारीरिक बीमारी होना स्वभाविक है। दूसरी तरफ शारीरिक व्याधी है तो मन में विषाद होगा। पर मन को मजबूत बनाकर सकारात्मक चिंतन से शारीरिक बीमारी को मात दी जा सकती है। वहीं मानसिक बीमारी को ठीक करने के लिए भौतिक प्रयास पर्याप्त नहीं है उसे जड़ से मिटाने के लिए ध्यान अच्छा माध्यम हो सकता है।
मन जीवन की छत के समान है, जिससे रिस-रिसकर परेशानियां टपकती है, जो संग्रहित होने पर चिंता, अवसाद व तनाव का कारण बनती है। इससे व्यक्ति की भूख व नींद भी चली जाती है। तरह-तरह की बीमारियों का आक्रमण होता है। उससे प्रभावित व्यक्ति का जीवन दुःखमय हो जाता है।
ऐसी दशा से बचने के लिए ध्यान बेहतर उपाय हो सकता है। ध्यान से मन व शरीर में तादात्मय होता है। इस प्रकार जीवन को संवारने की कला का नाम ध्यान है।
सामान्यतया लोग दुःखी व्यक्ति से बात करना पसंद नहीं करते है। यदि हम प्रसन्न है तो हर कोई हमसे जुड़ना चाहता है। प्रसन्नता का द्वार मन है। यदि मन प्रसन्न, खुश व प्रफुल्लित हो तो जीवन भी सुखमय होगा।
मन जीवन की छत के समान है, जिससे रिस-रिसकर परेशानियां टपकती है, जो संग्रहित होने पर चिंता, अवसाद व तनाव का कारण बनती है। इससे व्यक्ति की भूख व नींद भी चली जाती है। तरह-तरह की बीमारियों का आक्रमण होता है। उससे प्रभावित व्यक्ति का जीवन दुःखमय हो जाता है।
ऐसी दशा से बचने के लिए ध्यान बेहतर उपाय हो सकता है। ध्यान से मन व शरीर में तादात्मय होता है। इस प्रकार जीवन को संवारने की कला का नाम ध्यान है।
सामान्यतया लोग दुःखी व्यक्ति से बात करना पसंद नहीं करते है। यदि हम प्रसन्न है तो हर कोई हमसे जुड़ना चाहता है। प्रसन्नता का द्वार मन है। यदि मन प्रसन्न, खुश व प्रफुल्लित हो तो जीवन भी सुखमय होगा।
सुसंगती से वैचारिक पवित्रता
वैचारिक प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक वातावरण होता है, जिस वातावरण में व्यक्ति रहता है, उसका प्रभाव उसके चिंतन पर जरूर पड़ता है। वह जिनकी संगती करता है, उन लोगों के गुण व दुर्गुण से वह प्रभावित होता है। यदि बुरी संगती है तो उस पर भी बुराईयां की परत चढ़नी शरू हो जाती है। जिसका परिणाम असंतुष्टि, आतुरता व बैचेनी के रूप में सामने आता है। अतः हमें ऐसे लोगों की संगती से बचकर अच्छे लोगों की संगती करनी चाहिए। सुसंगती से विचार पवित्र रहते है साथ ही जीवन को सकारात्मक दिशा मिलती है।धरती की समस्त ऊर्जा का स्रोत सुर्य
बिना सुर्य धरती पर जीवन संभव नहीं है, जड़ से लेकर चेतन तक की ऊर्जा का स्रोत सुर्य है। समस्त धरती का भरण-पोषण सुर्य की ऊर्जा से होता है। विज्ञान कहता है धरती की प्राथमिक ऊर्जा का स्रोत सर्य है। उदयीमान सुर्य को सविता कहते है। सविता से विटामीन-डी मिलता है जो शरीर के लिए आवश्यक तत्व है।
सुर्य सतत् कर्मशील रहने की प्रेरणा देता है। इसे आदित्य, रवि, मित्र, भानु, खग, भुषण, भास्कर, हिरण्यगर्भ, मारिद्र, सविद्र व अरक के नाम से भी जाना जाता है।
सुर्य सतत् कर्मशील रहने की प्रेरणा देता है। इसे आदित्य, रवि, मित्र, भानु, खग, भुषण, भास्कर, हिरण्यगर्भ, मारिद्र, सविद्र व अरक के नाम से भी जाना जाता है।
जैविक घड़ी के साथ बिठाएं संतुलन
भारतीय संस्कृति में सविता को पवित्रता, प्रखरता व प्रसन्नता का प्रतीक माना जाता है। यहां सविता के दर्शन को शुभ माना जाता है। आदर्श दिनचर्या सुर्य से जुड़ी होती है। सुर्य के आगमन, दिन के मध्यकाल व सुर्य गमन को त्रिकाल संध्या कहा जाता है। त्रिकाल संध्या में ईश्वर को स्मरण किया जाता है।हमारी जैविक घड़ी शयन, जागरण के साथ शरीर की अन्य गतिविधियों के समय का संकेत देती है। यदि हमारी तादतम्यता जैविक घड़ी के साथ हो तो हम स्वस्थ रहते है। अतः हमें सुर्योदय से लेकर सुर्यास्त तक व उसके बाद हमारी दिनचर्या को सुव्यवस्थित बनाना चाहिए। ताकि जैविक घड़ी के साथ संतुलन बना रहे और हम स्वस्थ बने रहे।सुर्योपासना
सुर्य की उपासना से आयु, विद्या, यश व बल की प्राप्ति होती है। आयु व बल शारीरिक क्षमता है तो विद्या व यश मानसिक साम्थ्र्य है। सविता की उपासना गायत्री मंत्र से की जाती है। ’’यत पिण्डे , तत् ब्रहमाण्डे’’ यानी जो पिण्ड में है वहीं ब्रहमाण्ड में है। इस प्रकार सुर्य बाह्य बाह्य जगत में भी है और आन्तरिक जगत में भी। इस ब्रहमाण्ड रूपी जगत में सुर्य जीवंत-जाग्रत प्रतीमा है। इसका हम जैसे-जैसे ध्यान करेंगे वैसे-वैसे हमारा मन इसमें डूबता चला जाएगा, चिंतन की शैली बदल जाएगी। सबसे खास बात यह है कि हम सविता के ध्यान के साथ जितनी तन्मयता से गायत्री मंत्र का जप करेंगे। उतना अधिक फायदा हमें मिलेगा। परिणाम स्वरूप उपासक का ओजस्, तेजस् व वर्चस् भी बढे़गा। जिस प्रकार बारीश के पानी से धरती की उर्वरता बढ़ती है उसी प्रकार सुर्योपासना से जीवन की उर्वरता में वृद्धि होती है।सविता के ध्यान से अन्तर्जगत का सुर्य चमकने लगता है। निरंतर व नियमित सुर्योपासना से उपासक सुर्य सिद्ध साधक बन जाता है।
गायत्री मंत्र का अर्थ
गायत्री मंत्र में 24 अक्षर व 9 शब्द होते है। जो क्रमशः वेदों की शाखाओं व ग्रहों का प्रतीक होते है।गायत्री मन्त्र, इस समस्त ब्रह्माण्ड और समस्त व्याप्त जीवित जगत के कल्याण का सबसे बड़ा स्रोत है। इसे वेदों का सार भी माना जाता है।
इस मन्त्र के जाप से सभी प्रकार के मानसिक अथवा शारीरिक विकार दूर हो जाते हैं। गायत्री मन्त्र के जाप से ह्रदय में शुद्धता आती है और विचार सकारात्मक हो जाते हैं। शरीर में एक अदभुत शक्ति का संचार होता है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् ।
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ॐ = मंत्र का मुकूट
भू = सम्पूर्ण जगत के जीवन का आधार और प्राणों से भी प्रिय
भुवः = सभी दुःखों से रहित, जिसके संग से सभी दुखों का नाश हो जाता है
स्वः = वो स्वयंरू, जो सम्पूर्ण जगत का धारण करते हैं
तत् = उसी परमात्मा के रूप को हम सभी
सवितु = जो सम्पूर्ण जगत का उत्पादक है
र्वरेण्यं = जो स्वीकार करने योग्य अति श्रेष्ठ है
भर्गो = शुद्ध स्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन स्वरूप है
देवस्य = भगवान स्वरूप जिसकी प्राप्ति सभी करना चाहते हैं
धीमहि = धारण करें
धियो = बुद्धि को
यो = जो देव परमात्मा
नः = हमारी
प्रचोदयात् = प्रेरित करें
अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
सन्दर्भ - कुलाधिपति देव संस्कृति विश्वविद्यालय श्रद्धेय डॉ. प्रणव पंड्या जी की ध्यान कक्षा (29 मार्च 2018)
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