यदि समाज के रिती-रिवाजों के चलते किसी को अपनी जिदंगी से हाथ धोना पड़ता है, किसी को जीवनभर जीवनसाथी के साथ मतभेद-मनभेद रखना पड़ता है, किसी को उम्र भर तानाशाही का दंश झेलना पड़ता है, किसी को जीवन लक्ष्य बदलना पड़ता है, किसी को इच्छित संगिनी का त्याग करना पड़ता है, किसी को छिप-छिपकर प्यार करना पड़ता है, किसी को वैश्या बनकर जिंदगी जीनी पड़ती है, किसी को अपने शरीर को बीमारियों का घर बनाना पड़ता है और किसी को पूरी जिदंगी कुण्ठा से गुजारनी पड़ती है। तो ये रीति-रिवाज हमारी आदर्श परंपरा के अंग नहीं बल्कि कुरीति है, जो समाज को कमजोर बनाने का कार्य करते है।
आप समझ गए होंगे मैं यहाँ कौन-सी रीति-नीति की बात कर रहा हूँ। शायद आप में से अधिकतर युवा (राजस्थानी) उस तथाकथित परपंरा का शिकार हुए होंगे और मैं भी। वह है- बाल विवाह।
हमारे बचपन में ही पचपन से बड़ी उम्र वाले रिश्तेदार यह तय कर देते है कि हमें हमारा जीवन किस के साथ बिताना है। जब हमारे दूध के दांत गिरकर पक्के दांत आते हैं तो जिनके पक्के दांत गिरने की कगार पर होते है, वे बताते हैं कि ’’बेटा फलां घर की छोकरी या छोकरे के साथ तेरो ब्याह होग्यो है, अब 2-4 साल ठहर तेरा गोना भी हो जाएगा।’’ बच्चा कोई प्रश्न करे उससे पहले ही माता-पिता उसे बता देते है ’’तेरे दादा-दादी ने हमारी शादी भी छोटी उम्र में करा दी थी। अतः कम उम्र में शादी अपने यहां पूर्वजों की परपंरा है।’’
फिर वह बच्चा भी खुश होता है कि मैं भी 4 साल बाद बिनणी वाला हो जाऊंगा। कुछ समय के बाद शादी हो जाती है और बच्चा बीनणीधारी बन जाता है। शुरूआत में नयी-नवेली शादी का जोश होता है, एक-दूसरे से बड़ा प्यार करते हैं। मगर धीरे-धीरे वैचारिक मतभेद-मनभेद बढ़ते है। और उनके जीवन की पुरानी परते खुलती है और मतभेद संग्राम का रूप ले लेते है। अब यह संग्राम जीवनभर चलता है। नयी पीढ़ी इसी संग्राम में संस्कार लेती है, जिसका परिणाम बच्चों का भटकन के रूप में दिखता है।
यह तो हुई उन बेटे-बेटियों की बात जिन्होंने अपने पूर्वजों की परपंरा को बिना किसी परवाह किये आगे बढ़ाया।
इसके अलावा एक दूसरा वर्ग और भी है वह है शिक्षित युवा पीढ़ी का। जो अपने को जागरूक समझता है। उन्हें यह मालूम है कि समाज में प्रचलित बाल-विवाह गलत है, इसके भंयकर दुष्परिणाम है। फिर भी वे उसे सहते हैं। हाँ, कुछ युवा साथी इसका विरोध भी करते हैं, उन्हें परिवार व समाज के साथ संघर्ष करना पड़ता है। और वह संघर्ष उस मोड़ तक पहुँच जाता है जहाँ वह अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है।
यह है राजस्थान के अधिकतर युवाओं की कहानी।
जिम्मेदारी युवा पीढ़ी के कंधो पर
अब देश बदलाव के दौर से गुजर रहा है। चाहे वह आर्थिक हो या फिर राजनैतिक। ऐसे समय में सामाजिक परिवर्तन की भी आवश्यकता है। और यह परिवर्तन आज की युवा पीढ़ी ही कर सकती है। जिसका शुभांरभ बाल विवाह जैसी कुप्रथा के कलंक से समाज को मुक्ति दिलाकर करनी होगी। परिवर्तन की शुरूआत अपने परिवार से करनी होगी, फिर पड़ोस व उतरोत्तर समूचे समाज में क्रांति की लहर पैदा करनी होगी। कहा जाता है जवानी जिस ओर डोलती है जमाना भी उसी तरफ होता है। उम्मीद है अब यह जवानी जरूर बाल-विवाह के विरूद्ध सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंकेगी। और देखते ही देखते जमाने से इस कुरीति का नामोनिशान मिट जाएगा। इस बात की प्रबल संभावना है कि कुछ रूढ़िवादी सोच के लोग आपसे नाराज होंगे। पर आपको उनकी नाराजगी को दूर करने के लिए अपने लक्ष्य से नहीं भटकना है वरन आप उनके लिए अन्य सुख-सुविधाओं के संसाधन मुहैया कराए। फिर भी न माने तो कठोर रास्ता अख्तियार करने से न घबराए।
बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति। इस प्रकार की परंपराओं का समूल नाश और आधुनिकता का सकारात्मक स्वरूप हम युवाओं को प्रस्तूत करना होगा। इस प्रकार के लेख आधुनिक पीढ़ी की सोच है और इस प्रकार के लेखों से अवश्य परिवर्तन आयेगा।
ReplyDelete