Sunday 25 March 2018

हेस्को द्वारा पारम्परिक संसाधनों का ऐसा नियोजन, जिससे पर्यावरण के साथ स्थानीय लागों को भी फायदा


आज पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप सहारा रेगिस्तान में बर्फबारी, जोहन्सबर्ग में जलसंकट एवं ऋतुओं के आने-जाने के समय में असंतुलन  देखा जा सकता है।  सभी देशों की सरकारें इस पर अनेकों योजनाएं बना तो रही है, जलवायु सम्मेलनों का आयोजन भी कर रही है पर कोई ठोस परिणाम निकलता नहीं दिखाई दे रहा है।

ऐसी चिंताजनक परिस्थितियों में कुछ गैर सरकारी संगठन ऐसे भी है, जो पर्यावरण मित्र बन प्रकृति पुत्र होने का दायित्व निभा रहे है। उनमें से एक है- हेस्को (हिमालियन एनवारमेंटल स्टडीज एंड कन्जर्वेशन आॅर्गेनाईजेशन)।




आज हमने हेस्को की कार्यप्रणाली को समझने के लिए इसके सेन्टर पर जाने का निश्चय किया।यह उत्तराखण्ड की  राजधानी देहरादून से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर स्थित है।  इस दूरी को तय कर, तकरीबन 800 मीटर पैदल चलने के बाद आइसोटोप हाइड्रोलोजी रिसर्च सेन्टर की इमारत दिखाई दी, जो कि हेस्को का सेन्टर था। सेन्टर के काॅन्फे्रन्स हाॅल में संगठन की सदस्या डाॅ़ किरण नेगी ने हेस्को के उद्देश्य व कार्यप्रणाली पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि हेस्को एक एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) है, जिसकी स्थापना पद्मश्री डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी ने की। पद्मश्री, राष्ट्रपति पुरस्कार व अन्य कई अंलकारो से नवाजे जा चुके डाॅ. जोशी के अब तक के सफर की बात करे तो पहले वे जब बाॅटनी के प्रोफेसर थे तब से ही उनका पर्यावरण के प्रति गहरा रूझान था। उन्हें अपने काम से जब भी खाली समय मिलता तो वे जंगल में जाकर पर्यावरण संरक्षण का काम करते। इससे उनका यह रूझान समय के साथ आस्था में बदल गया और उन्होंने हेस्को का गठन किया।  जिसका उद्देश्य पर्यावरण का हितैषी बन ग्रामीणों के कल्याण के लिए कार्य करना है। क्योंकि ग्रामीण ही जल, जंगल, जमीन व स्वच्छ वायु के असली मालिक हैं और यही इनकी सच्ची ताकत है।

हेस्को प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर से बेहतर उपयोग करने की तकनीकी पर कार्य कर रही है।

ऐसे जीता लोगों का विश्वास

डाॅ. नेगी ने बताया कि हेस्को के प्रारम्भिक दिनों में सबसे बड़ी चुनौती लोगों का विश्वास  जीतना था। यह तभी सम्भव हो पाया जब लोगों की आधारभूत समस्याओं का समाधान हुआ। शुरूआत में डाॅ. जोशी ने स्थानीय लोगों की मूलभूत समस्याओं को जाना और उनके समाधान पर काम किया। पानी की किल्लत को दूर करने से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने तक, जब हर विषय पर काम किया गया तब लोगों को लगा कि वाक्ई में ये लोग हमारे हित में कार्य कर रहे हैं।
हेस्को ने स्थानीय पारम्परिक संसाधनों को उन्नत बनाकर लोगों तक पहुँचाया।

हेस्को की कामयाबी को बयां करती ये कहानियां


1. बुरांश को बनाया लोगों की आजीविका का साधन

1990 में हेस्को ने पहाड़ों में मिलने वाले बुरांश के फूलों से जूस बनाने का प्रयोग शुरू किया। समय के साथ इसका प्रचलन इतना बढ़ा कि आज उत्तराखण्ड आने वाले यात्री बुरांश के जूस की सबसे अधिक मांग करते है। यह आज हजारों लोगों की आजीविका का साधन बन चुका है।

2. कोदे के आटे का कमाल

पहले पहाड में लोग कोदे की रोटी खाया करते थे। जिसका रंग में भूरा होता है इस कारण, दिखावे के इस युग में लोगों ने इसे खाने से परहेज करना शुरू कर दिया। जब हेस्को को यह पता चला तो इस संगठन ने इस पर काम किया कि कोदे के आटे की क्या खासियत है और इसे कैसे अधिक लोगों तक पहुँचाया जाए ? तो मालूम हुआ कि इसमें कैल्शियम की प्रचुरता होती है। तो हेस्को ने इसके बहुत सारे उत्पाद बनाने शुरू किए और यह माॅडल ग्रामीणों तक पहुँचाया। आज इससे बनने वाले पौष्टिक उत्पादों की बाजार में खूब मांग है, जिससे अब लोग इसे बेचने में शर्माते नहीं है वरन् गर्व महसुस करते है।

3. नदियों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया

हिमालय जो पांच देशों में नदियों के पानी का स्रोत है और वहां के लोगों को ही पानी की कमी का सामना करना पड़े, इससे अधिक चिंताजनक बात क्या हो सकती है। इसी चिंता को दूर करने के लिए हेस्को ने छोटी-छोटी नदियों को पुनर्जिवित करने का बीड़ा उठाया।
देहरादून वन विभाग की आशारोड़ी रेंज में पड़ने वाले शुक्लापुर का जंगल वीरान हो चला था। 2010 में हेस्को की तकनीकी सहायता से 44 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इस जंगल में वर्षा जल संरक्षण की पहल शुरू की गई। हेेस्को के मुताबिक इस प्रयोग का लक्ष्य इस वन क्षेत्र से जुड़ी छोटी आसन नदी को जीवित करने के साथ ही वनाग्नि की रोकथाम हुई। इस वन भूमि में एक हजार वाटर होल और तीन बड़े तालाब बनाने के साथ ही 181 चैकडेम तैयार किए गए।

यही नहीं, ऐसी वन प्रजातियों का रोपण किया गया, जो जल संरक्षण में सहायक होने के साथ-साथ वन्यजीवों के लिए खाद्य श्रंखला भी तैयार करें। नतीजा यह हुआ कि आज छोटी आसन नदी के जल में 200 एलपीएम पानी की मात्रा बढ़ी है। साथ ही तब से आज तक जंगल में आग नहीं लगी। सबसे अच्छी बात क्षेत्रवासियों के पानी की किल्लत दूर हो गई।

4.  कम इंधन के प्रयोग से मल्टी पर्पस चूल्हा

हेस्को द्वारा विकसित दक्ष चूल्हा पारम्परिक चूल्हे का नया वर्जन है। जिसकी खासियत यह है कि वह कम ईधन में अधिक देर तक चलता है, एक साथ दो से तीन खाद्य पदार्थाें को पका सकता है। यानि यह मल्टी प्रपज चूल्हा है।

  गोबर से बनने वाले ऊपलो को भी हेस्को ने नए रूप में पेश किया। जिससे यह ऊपले पूरी तरह से जल पाते है। 
इनके अलावा बायो गैस को भी हेस्को सरल पर सधे रूप से लोगों तक पहँचाने का कार्य कर रहा है। इस प्रकार हेस्को परम्परागत संसाधनों को और अधिक विकसित कर लोगों तक पहँचा रहा है। जिससे स्थानीय लोगों को फायदा होने के साथ यह पर्यावरण के लिए भी वरदान साबित हो रहा है। अतः हेस्को हिमालय की धरोहर पर्यावरण व पानी को संरक्षित कर समाज कल्याण की दिशा में सराहनीय कार्य कर रहा है। जिसका लाभ हिमालयी राज्यों के साथ समूचे देश को हो रहा है। पर्यावरण सबसे जुड़ा मुद्दा है क्योंकि हर कोई सांस लेता है, हर किसी को शुद्ध पानी की चाहत होती है।